असुर के शरीर पर बसा है पितरों का मोक्ष द्वार 'गयाजी', यहां माता सीता ने किया था राजा दशरथ का पिंडदान

7 सितंबर से पितृपक्ष महीने की शुरुआत हो रही है।इस दौरान लोग अपने पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए पिंडदान और तर्पण करते हैं।परंपरा के अनुसार, पितृपक्ष के पहले दिन पटना जिले की पुनपुन नदी में स्नान कर पिंडदान करना जरूरी माना गया है।पुराणों में पुनपुन नदी को गयाजी श्राद्ध का प्रवेश द्वार कहा गया है। सनातन धर्म में पितरों की मुक्ति के लिए पितृपक्ष में पिंडदान का विशेष महत्व माना गया है।

असुर के शरीर पर बसा है पितरों का मोक्ष द्वार 'गयाजी', यहां माता सीता ने किया था राजा दशरथ का पिंडदान
Image Slider
Image Slider
Image Slider

DANAPUR : मोक्ष और तप की भूमि गयाजी प्राचीन काल से भारतीय संस्कृति का हिस्सा रही है। यहां लोग अपने पूर्वजों का पिंडदान करने आते हैं। गयाजी एक ऐसा शहर जहां भगवान बुद्ध ने ज्ञान प्राप्त किया। वायु पुराण के गया महात्म्य खंड में इसका विस्तार से वर्णन है। कहा जाता है कि एक समय धरती पर पाप सिर्फ अंश भर था और धर्म अपने पूर्ण रूप में मौजूद था। इसी दौरान असुर कुल में एक दैत्य गयासुर हुआ।

बड़ा होने पर वह भी अन्य दैत्यों की भांति विशालकाय और पर्वताकार हो गया। उसकी विशालता का अंदाजा ऐसे लगा सकते हैं कि उसकी उंगली की मोटाई ही डेढ़ योजन थी और उसका सारा शरीर साठ योजन लंबा था। धर्म के प्रभाव से गयासुर कोकाद्रि नाम के पर्वत पर कठोर तप करने लगा। कई सौ वर्षों तक बिना विचलित हुए तप करने से त्रिलोक में हाहाकार मच गया। बिना किसी आहार के तपस्या करने से देवता, ऋषि सभी घबराए और ब्रह्मा जी के नेतृत्व में भगवान विष्णु के पास पहुंचे।

 उन्होंने उनसे विनती की और कहा, हे विष्णुजी! गयासुर अत्यंत बलवान हो गया है, उसके द्वारा समस्त पृथ्वी पर पवित्रता फैल रही है, जिससे यज्ञ-कर्म और धर्मकृत्य निष्फल हो सकते हैं।कृपया उसे कोई ऐसा वर दें जिससे धर्म की रक्षा भी हो जाए और गयासुर की तपस्या भी सफल हो जाए।जब भगवान विष्णु गयासुर के सामने आए तो उसने कहा, आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मेरी देह को ऐसा पवित्र कर दीजिए कि जो उसे देखे, स्पर्श करे वह सीधे मोक्ष का अधिकारी हो जाए और उसे बैकुंठ या शिवलोक से कम कुछ न मिले। तब भगवान विष्णु मुस्कराए और बोले-तथास्तु, ऐसा ही होगा।अब गयासुर पृथ्वी पर सबसे पवित्र व्यक्ति हो गया और उसके प्रभाव से यमलोक, स्वर्गलोक सब कुछ सूना होने लगा। 

यहां तक कि कर्म पर आधारित धर्म का विचार भी नष्ट हो गया और पापी और पुण्यात्मा में कोई फर्क नहीं रह गया।सृष्टि के संचालन में इस तरह बाधा आने लगी।तब देवताओं ने एक दिन इकट्ठे होकर अपने-अपने अधिकारों और दायित्वों का त्याग करने का निश्चय किया और इसकी जानकारी देने त्रिदेवों के पास पहुंचे। इस पर ब्रह्ना-विष्णु और शंकर जी सभी ने कहा, कि ऐसा नहीं हो सकता है।आप लोगों के अपने कर्म से हट जाने से तो सृ्ष्टि का विनाश हो जाएगा।यह सुनकर देवताओं ने सिर झुका लिया और मौन हो गए।

त्रिदेवों के फिर से पूछने पर वायु देवता ने बड़ी विनती से कहा कि, अधिकार और कर्तव्य पालन की जरूरत ही कहां रह गई है।गयासुर सभी कर्म के सिद्धांत को चुनौती दे रहा है।उसके दर्शन मात्र से जीवों को मोक्ष मिल रहा है।ऐसे में क्या ही कर सकते हैं?

यह सुनकर ब्रह्नमाजी भी चिंता में आ गए।तब विष्णु जी ने सुझाव दिया कि हे ब्रह्मा, आप धरती पर स्थित किसी सबसे पवित्र तीर्थ पर यज्ञ का आयोजन कीजिए।महाविष्णु की आज्ञा से ब्रह्ना जी पृथ्वी पर भ्रमण करने लगे, लेकिन उन्हें धरती पर एक भी पवित्र स्थान नहीं मिला।तब वह महाविष्णु का संकेत समझकर गयासुर के पास पहुंचे और अपना प्रयोजन बताया।ब्रह्माजी ने कहा, क्योंकि तुमने वरदान में सभी तीर्थों से अधिक पवित्रता मांग ली है, इसलिए तुमसे अधिक पवित्र कोई है नहीं, लेकिन मुझे महाविष्णु की आज्ञा से एक परम पावन यज्ञ करना है तो वह कहां करूं।

ब्रह्माजी के इस प्रश्न को सुनकर गयासुर सोच में पड़ गया और फिर बोला कि आपकी बात तो ठीक है, मुझसे पवित्र तो कुछ भी नहीं। बस इसी एक वाक्य से गयासुर के भीतर अहंकार समा गया, क्योंकि अनजाने ही अहं का प्रयोग कर लिया।तब उसने सहर्ष ही अपना शरीर ब्रह्माजी के यज्ञ के लिए दान कर दिया।ब्रह्मा जी ने उससे लेट जाने को कहा। गयासुर ने उत्तर की ओर सिर किया और दक्षिण की ओर पैर।अब उसके शरीर पर समतल स्थल बनाने के लिए उसे शिला से स्थित किया ताकि उस पर यज्ञ हो सके।वायुपुराण के अनुसार राक्षस गयासुर को नियंत्रित करने के लिए भगवान विष्णु ने शिला रखकर उसे दबाया था।इसी से शिला पर उनके चरण छप गए।

ऐसे पड़े भगवान विष्णु के चरण चिह्न

विष्णुपद मंदिर में भगवान विष्णु का चरण चिह्न ऋषि मरीची की पत्नी माता धर्मवत्ता की शिला पर है।राक्षस गयासुर को स्थिर करने के लिए धर्मपुरी से माता धर्मवत्ता शिला को लाया गया था, जिसे गयासुर पर रख भगवान विष्णु ने अपने पैरों से दबाया।इसके बाद शिला पर भगवान के चरण चिह्न है। विश्व में विष्णुपद ही एक ऐसा स्थान है, जहां भगवान विष्णु के चरण का साक्षात दर्शन कर सकते हैं।विष्णुपद मंदिर का निर्माण कसौटी पत्थर से हुआ है।इस मंदिर की ऊंचाई करीब सौ फीट है।सभा मंडप में 44 स्तंभ हैं।54 वेदियों में से 19 वेदी विष्णपुद में ही हैं, जहां पर पितरों के मुक्ति के लिए पिंडदान होता है। यहां वर्ष भर पिंडदान होता है।

माता सीता ने भी किया था राजा दशरथ का पिंडदान

मान्यता है कि यहां भगवान विष्णु के चरण चिह्न के स्पर्श से ही मनुष्य समस्त पापों से मुक्त हो जाते हैं।मंदिर के पास ही सीता कुंड है।मान्यता है कि माता सीता ने सैकत पिंड से महाराज दशरथ का पिंडदान किया था।विष्णुपद मंदिर के शीर्ष पर 50 किलो सोने का कलश और 50 किलो सोने की ध्वजा लगी है।गर्भगृह में 50 किलो चांदी का छत्र और 50 किलो चांदी का अष्टपहल है, जिसके अंदर भगवान विष्णु की चरण पादुका विराजमान है। गर्भगृह का पूर्वी द्वार चांदी से बना है।वहीं, भगवान विष्णु के चरण की लंबाई 40 सेंटीमीटर है।18 वीं शताब्दी में महारानी अहिल्याबाई ने मंदिर का जीर्णोद्वार कराया था, लेकिन यहां भगवान विष्णु का चरण सतयुग काल से ही है।

2025 में कब से पितृपक्ष मेला

7 सितंबर से पितृपक्ष महीने की शुरुआत हो रही है।इस दौरान लोग अपने पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए पिंडदान और तर्पण करते हैं।परंपरा के अनुसार, पितृपक्ष के पहले दिन पटना जिले की पुनपुन नदी में स्नान कर पिंडदान करना जरूरी माना गया है।पुराणों में पुनपुन नदी को गयाजी श्राद्ध का प्रवेश द्वार कहा गया है। सनातन धर्म में पितरों की मुक्ति के लिए पितृपक्ष में पिंडदान का विशेष महत्व माना गया है।परंपरा के अनुसार श्रद्धालु सबसे पहले पटना जिले की पुनपुन नदी में स्नान कर अपने पूर्वजों को प्रथम पिंड अर्पित करते हैं।इसके बाद ही वे मोक्ष की नगरी गयाजी पहुंचकर श्राद्ध और तर्पण की विधि पूरी करते हैं।पुराणों में पुनपुन नदी को गया श्राद्ध का प्रवेश द्वार बताया गया है।ऐसा विश्वास है कि यदि पितरों को पुनपुन में प्रथम पिंड नहीं दिया जाता तो गया में किया गया श्राद्ध अधूरा माना जाता है।इसी कारण सदियों से पुनपुन नदी में प्रथम पिंडदान की यह परंपरा चली आ रही है।

भगवान श्रारीम से जुड़ी है ये परंपरा

पुनपुन नदी में पहले पिंडदान की परंपरा के पीछे पौराणिक मान्यता जुड़ी हुई है।कहा जाता है कि भगवान राम ने अपने पिता राजा दशरथ की आत्मा की शांति के लिए सबसे पहले पुनपुन नदी के तट पर पिंडदान किया था। इसके बाद उन्होंने गया की फल्गु नदी में पिंडदान की विधि पूरी की। इसी कारण पुनपुन नदी को आदि गंगा और पिंडदान का पहला द्वार माना जाता है। विश्वास है कि यहां पहला पिंड चढ़ाए बिना गया में किया गया श्राद्ध अधूरा और निष्फल माना जाता है।

पितरों के लिए अलग-अलग कर्मकांड

पितृपक्ष माह में पूर्वजों की आत्मा की शांति और मोक्ष के लिए अलग-अलग प्रकार के कर्मकांड किए जाते हैं। इनमें मुख्य रूप से पांच तरह के अनुष्ठान शामिल हैं।परंपरा के अनुसार कोई व्यक्ति 1 दिन, 3 दिन, 7 दिन या 17 दिनों तक पिंडदान कर सकता है।इनमें 17 दिनों तक लगातार किया जाने वाला पिंडदान सबसे बड़ा और विशेष माना जाता है, जिसे त्रिपाक्षिक पिंडदान कहा जाता है। माना जाता है कि इस विधि से किए गए पिंडदान से पितरों को पूर्ण तृप्ति और मोक्ष की प्राप्ति होती है।

माता सीता ने बालू के पिंड से किया था पिंडदान

राजा दशरथ की जब मृत्यु हुई उस समय राम, लक्ष्मण और सीता वनवास में थे।ऐसे में भरत और शत्रुघ्न ने राजा दशरथ का अंतिम संस्कार किया।कहा जाता है की उनकी चिता की बची राख उड़कर गया की फल्गु नदी किनारे आ गई। वहां माता सीता को उस राख में राजा दशरथ के दर्शन हुए थे।तब सीता जी ने अपने ससुर का पिंडदान करने की इच्छा जताई।उन्होंने नदी, गाय और वटवृक्ष को साक्षी मानकर बालू का पिंड बनाकर पिंडदान किया था।

दानापुर से रजत कुमार की रिपोर्ट